Sunday, June 20, 2010

गांधीवाद पर अरुन्धति राय की खीझ

अरुन्धति राय जी ने मुंबई में 'फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स' द्वारा आयोजित सेमिनार में कहा है कि " गांधीवाद आब नाकाम, संघर्ष है सशस्त्र आन्दोलन" (हरिभूमि) बिलासपुर 05 /06 /2010 . उन्होने यह भी कहा- " जेल में डाल दो तब भी करती रहूंगी नक्सलियों का समर्थन" .
ऐसा है मैडम जी कि प्रख्यात लोगों को इंस्टेंट थाट आते रहते हैं. अभी ही तो चेतन भगत ने गुलज़ार को 'कजरारे' गाने का मर्म समझाना चाहा था. नक्सलवाद का आप समर्थन करती हैं, डेमोक्रेटिक राइट पर बोलती हैं, लेकिन ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के यात्रियों का राइट टू लिव भूल जाती हैं. ये यात्री कारपोरेट घराने वाले नहीं थे. कारपोरेट वाले तो हवाई जहाज में चलते हैं. ये आम भारतीय थे जिनका कसूर इतना था कि वे ज्ञानेश्वरी में यात्रा कर रहे थे.
गांधीवाद को नाकाम बताने का स्टैंड सीधे या संक्षिप्त, किसी भी तरह से बोल्ड नहीं है. आप के पूर्व ये प्रयास हो चुका है. हिंदी के विख्यात लेखक ओर पूर्व क्रांतिकारी यशपाल "गांधीवाद की शव परीक्षा" पहले ही लिख चुके है. लोक भारती ने छापा है. यशपाल के साहित्यिक योगदान का प्रशंसक हूँ पर तब भी मैं ने स्वर्गीय शब्द का प्रयोग नहीं किया है क्योंकि वे मार्क्सवादी थे. उन्हें स्वर्गीय कहना उनपर एक तरह का अत्याचार माना जा सकता है. हकीकत यह है कि पुस्तक का नाम अब कम लोगों को याद है. गाँधी ओर गांधीवाद को समाप्त करने कि इच्छा कभी चर्चिल की भी थी. रजनी पामदत्त ने भी गाँधी ओर गांधीवाद की तीखी आलोचना की थी "आज का भारत" में. बन्दे में इतना दम तो है कि पीढियां गुजर गयी उनकी नाकामी की घोषणा करते-करते. अब मैडम अरुन्धति राय की बारी लग गई गांधीवाद की नाकामी की घोषणा करने की. मेरे कुछ वामपंथी मित्र हैं जो गांधीवाद जैसी चीज का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते, फिर नाकामी किसकी? यह नासमझी है या खीझ?


5 comments:

  1. asha hai aisa hi taja aur achchha kuch na kuch yaha dekhane ko milta rahega. swagat aur badhai.

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  2. यह तो मात्र खीज ही है. हाँ आपका ब्लॉगजगत में स्वागत है.

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  3. achchhi khichai ki hai aapne arundhati roy ki...arundhati roy jaise log charcha me aane ke liye kuchh bhi kar sakte hain...

    Madan Mishra

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  4. गाँधी ने कोई वाद तो चलाया नहीं, लोगों ने गाँधीवाद खड़ा कर दिया। यशपाल और राहुल सांकृत्यायन समेत कुछ लोगों ने गाँधी की आलोचना की है और उससे बहुत हद तक सहमत हुआ जा सकता है। अरूंधति जैसे कितने आए-गए। इन लोगों को इतना महत्व मिलना ही नहीं चाहिए जितना दिया जाता है। क्या बुकर मिलने से पहले इतना चिल्लाती थीं ये। हिंसा का रास्ता बेशक एक जरूरी अस्त्र है लेकिन नक्सली बनकर नहीं और मूर्खतापूर्ण तरीके से नहीं। उसके लिए भी मौलिक तरीके होते हैं, जो न चेतन और न ये अरूंधति के पास हैं। सब फालतू किस्म के लोग हैं।

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