Thursday, October 21, 2010

मौत के बहाने

मौत ज़रूरी है ---नहीं तो ज़नसंख्या बढती जाएगी ,बोझ भी बढ़ता जाएगा .शिथिल और क्लांत जीवन को विश्राम की जरुरत होती है . नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि ...का दर्शन हमारे पास है तब भी मृत्यु पर हम रोते हैं , विलाप करते हैं ,मोह सवार हो जाता है ,लम्बी उदासी चढ़ जाती है श्राद्ध के बाद भी मन हल्का नही होता है , उबरने में साल दो साल लग जाते हैं . शायद यही जीवन है .
मृत्यु हमारे सामने आ चुकी होती है . हम देख नहीं पाते . देखना भी नहीं चाहते .कोमा में गया पेशेंट कभी कभार ही होश में आता है .होश में आना और अपनों को पहचानना भी भ्रम ही होता है .पटना के अपोलो बर्न सेंटर में देखा था, एक युवक बेड पर लेटा था,उसकी दो ज़वान और चुलबुली सालियाँ भरी दोपहरी में सेव काट कर खिला रही थीं , पत्नी मक्खी उड़ा रही थी , सास दूर बैठी ऊँघ रही थी ,ऐसा लगा कि हमारी धरती पर छोटा सा इन्द्र हमारी आँखों को सुख देने के लिए उतर आया है .गिरी से गिरी हालत में भी वह दो परियों के बीच एक देव कुमार तो लग ही रहा था. अचानक तबियत बिगड़ी और देवकुमार अपनी दोनों ज़वान और चुलबुली सालियों को रोता और सास को सुबुकता छोड़ देवलोक को वापस लौट गया.छत्तीसगढ़ में ऐसी ही एक अनोखी मौत से सामना हुआ.

छत्तीसगढ़ के अनेक गढ़ों में से एक गढ़ है सारंगढ़, राजा नरेश चन्द्र सिंह का. राजा साहब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे थे. राजाओं वाली कोई बुराई मेरे सुनने में नहीं आई. ब्रिटिश राज में सारंगढ़ की हैसियत छत्तीसगढ़ के चौदह रजवाड़ों में थी. सारंगढ़ की सीमा से निकलते ही सरसीवां के आगे है भटगांव.

लगभग बीस हज़ार की आबादी वाला क़स्बा. ब्रिटिश राज में भटगांव को जमींदारी की हैसियत मिली थी. पटना से मैं अपने सम्बन्धी को मिलने भटगांव पहुंचा था. भटगांव में सात आठ तालाब थे और बीस से अधिक मंदिर और देवस्थान. पढाई-लिखाई के लिए एक कालेज तथा स्थानीय जमींदार के नाम पर बड़ा सा मल्टीपरपस हाई स्कूल भी है. इस बड़े कस्बे में चार पांच डाक्टर थे जिनको छत्तीसगढ़िया अखबारी भाषा में झोला छाप डाक्टर पुकारा जाता है. दो बड़े डाक्टर भी थे, जिनके पास MBBS और MD की डिग्री थी. इन दोनों का महत्त्व कई बार भगवन से भी अधिक लगता था. इसी भटगांव में नौकरी और व्यापार के सिलसिले में मेनन आये थे. खुशमिजाज और सफल आदमी थे. खाने के शौक़ीन थे, पीने के उससे भी अधिक. पर पियक्कड़ नहीं थे. पी कर कभी कहकहे नहीं लगते थे, मंद-मंद मुस्काते थे. मुझे भी उनसे मिलाया गया.पहली ही नज़र में पसंद करने लायक लगे.

मालूम हुआ कि उनका परिवार केरल में ही रहता है. यहाँ अकेले रहते थे. पर उनकी मित्रमंडली उन्हें अकेला नहीं छोडती थी. उनकी मित्रमंडली में भटगांव के दो बड़े डाक्टरों में से एक शामिल था.दोनों के बीच दांत कटी रोटी वाला रिश्ता था खाने पीने में. केरल तो छत्तीसगढ़ से भी बहुत दूर है. पटना से तो और अधिक. बिहार की राम दुलारी सिन्हा जी केरल में गवर्नर बनीं. माता जी से मिलने उनके लड़के केरल जा रहे थे तो मित्र लोग साथ देने के लिए मुश्किल से ही तैयार हुए थे. उस समय पटना में यह जुमला फेमस हुआ था कि पटना का कौवा भी केरल नहीं जाता है, आदमी क्या जायेगा. मेनन उसी केरल के थे.... बहुत दूर वाले केरल के.
बाद के दिनों में मालूम हुआ कि हमारे मेनन केरल के अपने गाँव गए. दरवाज़ा खटखटाया, दो -तीन बार खटखटाया. अपने आने की सूचना भेजी नहीं थी या मिली नहीं थी. मन शंकाओं से घिरा था. कितने परिश्रम से तो पैसा कमा कर घर भेजते हैं. प्रवासियों के परिवार के बारे में कैसी-कैसी तो बातें सुनने में आती हैं. थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला. उनका छोटा वाला लड़का निकला. मेनन उसे गले लगा पाते इसके पहले ही वह बालक दरवाज़े से ही चिल्लाया,"मम्मी, कोई आया है"....! बालक मेनन पिता को पहचान नहीं पाया.
बड़े मेनन को सदमा लगा. पत्नी झेंप गयी, बोली- "बच्चा है, खिलवाड़ करता है".
मेनन को सदमा लग चुका था.
उनका केरल उनको भूल चुका था.
कुछ दिनों बाद लौट कर फिर भटगांव आ गए. अपने काम धंधे में लग गए. पहले की तरह जीवन पटरी पर आ गया परन्तु उनका मुस्काना कम हो गया. पीने पर भी नहीं मुस्कुराते थे. पैसे की कमी नहीं थी लेकिन मित्रमंडली और डाक्टर साब कम मिलते थे. हल्का बुखार आया. दो-तीन दिन बिस्तर पर रहे और प्राण पखेरू उड़ गए. रोने के लिए न अपने थे न पराये. औपचारिक तौर पर उनका दाहसंस्कार कर दिया गया. इस खर्च के लिए उनका सामान बेच दिया गया. भटगांव से लेकर केरल तक मेनन को याद करने वाला कोई नहीं था. मेनन की मौत बेमिसाल बदनसीबी में हुई.
मैं बिलासपुर में नया आया था. एस.बी.आर. में इतिहास का विभागाध्यक्ष था. पत्रकारों, साहित्यकारों की संगत में था. इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा जी पधारे थे. प्रेस क्लब में उनका कार्यक्रम सम्यक विचार मंच की तरफ से कपूर वासनिक साहब ने आयोजित किया था. कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिय मेरा नाम कार्ड पर जा चुका था. इतिहास के छात्र भी काफी आये थे.हाल लगभग पूरा भर चुका था पर मैं आधे से अधिक लोगों को जानता नहीं था.पहली पंक्ति में कई सीनिअर बैठे थे. उनमे से एक थे रोहिणी कुमार वाजपेयी. मुझे बताया गया कि आप तखतपुर से कांग्रेस के विधायक रह चुके हैं, freedom fighter भी हैं. मुझ पर थोडा आतंक आया कि कपूर साहब ने कहाँ फंसा दिया. आनंद भाई, समाजवादी पार्टी वाले भी बैठे थे, ML तथा BSP वाले मित्र भी थे. अंबेडकरवादी वक्ता भी आये थे. मंच पर ही बताया गया कि श्रोताओं में संघ वाले भी हाज़िर हैं. इतने विपरीत गुटों को संभालना मुश्किल लग रहा था. शायद इसीलिए मुझे अध्यक्ष रखा गया था कि तटस्थ लग सकूँ सब को. अपने संबोधन में मैं अपने छात्र जीवन, समकालीन बिहार तथा लाल बहादुर वर्मा के इतिहास लेखन पर अच्छा बोल पाया. लाल बहादुर जी तो अच्छा बोलते ही हैं. प्रश्नोत्तर सत्र में शुरुआत वाजपेयी जी ने टायनबी के चक्राकार सिधांत से की. मेरा काम दो बुज़ुर्ग व्यक्तिओं की बहस को नियंत्रित करने का रह गया. दोनों ही मेरे से संतुष्ट हो पाए. बाकी का सत्र भी शांति से निबट गया. वाजपेयी जी से मन प्रभावित हुआ था मेरा. उन्होंने भी मुझे पसंद किया था. पिछले दिनों उनका देहांत हो गया. चलते फिरते, शांति पूर्वक, बिना किसी विशेष कष्ट के.
एक दुखद मौत हुई जे एन यू के मेरे वरिष्ठ रहे दिग्विजय सिंह जी की, लन्दन में. अपने घर गाँव देश से दूर. कोमा की स्थिति में. अभी तो युवा ही थे राजनीति में. इस की तरह की मृत्यु दुखद लगती है. इसी तरह की दुखद मृत्यु होती है नक्सली हिंसा/प्रतिहिंसा में. शायद ऊपरवाले का विधान है.

दो दिन पूर्व बिलासपुर में G D C के सामने कार दुर्घटना हुई जिसमे 100 की गति से एक रिट्ज़ ने रात में पेड़ को ठोकर मार दी. उसमे सवार 5 युवक पढ़ते हुए ही प्रापर्टी डीलिंग के माध्यम से अर्थोपार्जन में लग गए थे. बहुत जल्दी थी पैसे कमाने की, गाडी खरीदने की. सुनसान सड़क पर महिला कालेज के सामने तेज़ गति से चलते हुए सड़क किनारे लम्बे समय से खड़े स्थिर पेड़ टक्कर मार बैठे. ये कैसी जल्दबाजी थी घर जाने की ....... या दुनिया से जाने की.

**** **** ****

ये पोस्ट लम्बा हो चुका है, गांधी मीमांसा और बिगडैल हरिलाल अगले पोस्ट में.