Monday, December 20, 2010

हमारे छेदीलाल बैरिस्टर



स्वतंत्रता संग्राम की क्षेत्रीय विभूतियों पर संतुलित दृष्टि से रचा गया साहित्य और इतिहास अत्यल्प है। आंचलिक नायकों की अकूत प्रतिभा और तेजस्विता के बावजूद राष्ट्रीय नेताओं की तुलना में उन पर शोध एवं लेखन की मात्रा कम ही है। 'हमारे छेदीलाल बैरिस्टर' पर शोध ग्रंथ तैयार हुए थे, स्मारिका निकली थी परन्तु पहली बार पुस्तकाकार अधिकारिक जीवनी प्रकाशित हुई है। इस रेखांकन से क्षेत्रीय अस्मिता की पहचान और राष्ट्रीयता दोनों ही मजबूत होगी। पुस्तक जीवनी है, क्योंकि इसमें छेदीलाल जी के जीवन का वर्णन है, परन्तु कथ्य का फलक जीवनी की प्रचलित सीमा से अधिक व्यापक है।

वर्णन, प्रवाह और रोचकता की दृष्टि से पुस्तक में औपन्यासिक शैली का भरपूर निर्वाह हुआ है, तो लम्बे कालखंड ने कथा संदर्भ को महाकाव्यात्मक आधार दिया है। पूरी पुस्तक का मूल स्वर संघर्ष और वेदना है। नियति के निर्देश या ऋषि के श्राप के कारण नहीं बल्कि राजनैतिक महत्वाकांक्षा के अभाव में बैरिस्टर साहब दुनियावी तौर पर असफल होते हैं तथा राजनैतिक शक्ति के शिखर पर नहीं पहुंच पाते हैं। पुस्तक का प्रारंभ उनकी मृत्यु के प्रसंग से होता है। अपनी सशक्तता के बावजूद, कथा नायक की मृत्यु का प्रसंग पाठक के लिए दुखद शुरूआत है। जीवनी में दुख, कथा बीज (Leit Motif) की तरह उभरता है, जिसकी आवृत्ति अनेक रूपों में होती है। भरपूर संघर्ष के बाद कथा नायक के जीवन में थोड़ी सफलता आती है कि अचानक एक अन्य समस्या आ खड़ी होती है। विजय का उत्सव मनाने का अवसर नियति ने नहीं दिया बैरिस्टर छेदीलाल को क्या, उनके पूर्वजों को भी।

पारिवारिक कथा प्रसंग वहां से प्रारंभ होता है जहां से भारतीय इतिहास में मध्यकालीन शासन व्यवस्था ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रशासनिक व्यवस्था के सामने पराजय की त्रासदी भोग रही होती है। राजस्थान में इस्ट इंडिया कंपनी की शक्ति स्थापना के उपरांत राजपूत राजाओं को भी अपनी सेना भंग कर देने के लिए विवश किया गया। बड़े और समझौतावादी राजा तो बने रहे, दुर्बल ही सही, परन्तु संघर्ष करने वालों का सब कुछ उजड़ गया। संकीर्ण दृष्टि के सैनिकों ने पिंडारियों की तरह लूटमार तथा चोरी-डकैती का पेशा अखितयार कर लिया लेकिन उनके वीरोदात्त नायकों ने अधःपतन की बजाय राजस्थान के बाहर कैरियर की तलाश शुरू की। छत्तीसगढ़ अंचल ने समय के मारे और वक्त के सताये कितने ही कर्मठ परिवारों को अपने आश्रय में सहेजा है।

छेदीलाल जी के पुरखे अंग्रेजों के कारण राजस्थान से विस्थापित हुए तो उसी अंग्रेजी सत्ता के विरोध में बैरिस्टर साहब समग्रता में सक्रिय रहे। संघर्ष ही परिवार की नियति थी। उनके पिता का जन्म से ही गूंगा होना त्रासदी के क्रम को टूटने नहीं देता है। गूंगे व्यक्ति का विवाह हुआ और पहला पुत्र विछोह दुख देकर ईश्वर को प्यारा हो गया। गूंगा कैसे दुख व्यक्त करे? दूसरे पुत्र के रूप में छेदीलाल का जन्म हुआ। वैद्य की दवा का असर नहीं हो रहा था। बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है जब छेदीलाल जी के चाचा दीवान साहब छत्तीसगढ़ी में देवी के सामने अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं और अपना धर्म त्याग कर पठान बनने का निश्चय करते हैं पर शिशु भी बच जाता है और परिवार का धर्म भी। मरणासन्न शिशु पर बस्ती के बुजुर्ग कोष्टा की औषधि का चमत्कारिक प्रभाव हुआ।

छेदीलाल जी के बढ़ने और पढ़ने जाने का प्रसंग क्षेत्रीय परिवेश में खूबसूरती से उकेरा गया है। ये हिस्से कथा प्रसंग में अनवरत आनंद के हैं। परिवार पर दुख की छाया नहीं है। छेदीलाल जी के विवाह के प्रसंग का वर्णन तो इतना सचित्र है कि आज की भाषा में वह शादी के वीडियो कैसेट से अधिक आनंद और जानकारी देता है, लोक रस्मों और रीतियों की। विवाह के कुछ समय पश्चात गौना होता है। उनके पुत्र का जन्म होता है। इलाहाबाद से वे अकलतरा आते हैं। पत्नी और पुत्र से मिलकर वे इलाहाबाद लौटते हैं। किसी भी अंतरंग को वे नहीं बता पाते हैं कि उन्होंने अध्ययन के लिए इंग्लैण्ड जाने का निश्चय किया हुआ है। अपनी योजना के अनुसार वे इंग्लैण्ड के लिए निकल पड़ते हैं। यहां से उनके जीवन में दुख की निश्चित मात्रा नियमित अंतराल पर आने लगती है। बाधाएं दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों ही प्रकार की है। उनके इंग्लैण्ड में रहते ही उनके पुत्र की मृत्यु हो जाती है। उनके जीवन में आने वाले दुखों की पहली बौछार उनकी प्रथम पत्नी पर पड़ी है। सारे दुखों की आखिरी किश्त उन्हें वैधव्य के रूप में प्राप्त होती है। विदेशी मेम के रूप में सौत की आशंका से भयभीत पत्नी के साथ बैरिस्टर साहब की प्रथम पत्नी के पक्ष में सहज सहानुभूति उमड़ती है तथा पूरी पुस्तक में एक भी प्रसंग नहीं है जहां उनके चित्रांकन में हल्कापन दिखता हो। निश्चय ही वे छत्तीसगढ़ की त्यागमयी और सहिष्णु महिलाओं के लिए आदर्श बनी रहेंगी।

समस्याओं की आवृत्ति में एक कारण छेदीलाल जी का कैरियरिस्ट न होकर इमोशनल होना भी है। कैरियरिस्ट न होना स्पष्ट तौर पर तब बुरी बात न थी और घिसी-पिटी लकीर पर जीवन चलाना आज भी अच्छी बात नहीं मानी जाती है। अर्थोपार्जन को संपूर्ण ऊर्जा समर्पित करने की जगह उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और रामलीला के भव्य आयोजन, शिक्षण तथा आपदा के समय जनता की सहायता जैसे आर्थिक तौर पर नुकसानदेह कार्यों में धन और समय का निवेश किया। पुस्तक का अंत होते-होते प्रारंभिक बिन्दु आ जाता है। फ्लैश बैक पद्धति का सार्थक निर्वाह है। पुस्तक में बैरिस्टर साहब की मुकम्मल तस्वीर उभरती है तथा हमारा क्षेत्रीय परिवेश जीवन्त होता है। जीवनी के वे हिस्से, जहां बैरिस्टर साहब की गतिविधियों का राष्ट्रीय प्रांगण में वर्णन हुआ है, तथ्यात्मक त्रुटि के शिकार हुए हैं।

पृष्ठ ७० पर बताया गया है कि विलायत आते-जाते बैरिस्टर साहब का परिचय सुभाषचन्द्र बोस आदि से भी हुआ। जीवनी से ही ज्ञात होता है कि बैरिस्टर साहब ने १९१२ में एम.ए. पास कर बार-एट लॉ के लिए प्रवेश लिया तथा १९१४ में डिग्र्री लेकर भारत लौट आए। यह एक सुस्थापित तथ्य है कि सुभाषचन्द्र बोस ने १९१३ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। तब तक वे अपने परिवार के साथ कटक में रह रहे थे। इसके उपरांत कालेजी शिक्षा के लिए वे कलकत्ते चले गए। स्नातक की परीक्षा पास करने के उपरांत १९१९ के सितम्बर में बंबई से सिटी आफ कलकत्ता नामक जहाज से उन्होंने इंग्लैण्ड प्रस्थान किया था। छात्र सुभाषचन्द्र बोस से बैरिस्टर साहब का संपर्क कब हुआ यह बताया नहीं गया है। इंग्लैण्ड में संपर्क होना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि बैरिस्टर साहब के इंग्लैण्ड से लौटकर आने के पांच वर्षों उपरांत सुभाषचन्द्र बोस इंग्लैण्ड गए थे तथा आई.सी.एस. की परीक्षा देने के साथ-साथ कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था।

दूसरी बड़ी चूक भी सुभाषचन्द्र बोस से ही संबंधित है। १९३९ में त्रिपुरी अधिवेशन के लिए सुभाषचन्द्र बोस चुने गए। उन्होंने गांधी जी के उम्मीदवार को चुनाव में पराजित किया था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में यह शामिल है तथा इसके निहितार्थों पर संगोष्ठियों में आज भी वाद-विवाद होता है। इस महत्वपूर्ण अधिवेशन हेतु बैरिस्टर साहब को जी.ओ.सी. बनाया गया था, जो उनके बढ़ते राजनैतिक महत्व की सूचना देता है। यहां तथ्यात्मक त्रुटि यह है कि पृष्ठ १९४ के अनुसार इस चुनाव हेतु गांधी जी के उम्मीदवार पी.डी. टंडन थे, जबकि निर्विवाद तथ्य यह है कि गांधीजी के उम्मीदवार डॉ. पट्‌टाभिसीतारमैया थे, जिन्होंने बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास लिखा। इसी तरह पृष्ठ १३२ पर उल्लिखित चौरा-चौरी की दुर्घटना १९२३ में नहीं १९२२ में हुई थी। पृष्ठ ९८ पर तिलक के विषय में बताया गया है कि वे होम रूल के मुद्‌दे पर साम्राज्यवादी सरकार के झांसे में आ गए थे। तिलक उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जिन्हें ब्रिटिश शासन के साम्राज्यवादी स्वरूप में रत्ती भर भी संदेह नहीं था। उसी पृष्ठ पर बताया गया है कि मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में जलियांवाला बाग की रिपोर्ट देने के लिए बनी समिति में बैरिस्टर साहब को सम्मिलित किया गया। परन्तु २५.०३.१९२० को प्रकाशित यह रिपोर्ट गांधी जी की लिखी मानी गई है। समिति के तीन अन्य सदस्यों के रूप में सी.आर.दास, तैय्‌यब जी एवं एस.आर. जयकर के हस्ताक्षर गांधी जी के हस्ताक्षर के साथ रिपोर्ट के अंतिम पृष्ठ पर हैं। क्षेत्रीय अस्मिता के इतिहास और राष्ट्रीय कालक्रम के बेहतर संयोजन की आवश्यकता का महत्व स्थायी और अनिवार्य है, मात्र तात्कालिक विशेषता या वैयक्तिक विशेषज्ञता नहीं (संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन की पत्रिका 'बिहनिया' के अंक ६, सितम्बर २००७ में प्रथमतः प्रकाशित)

Tuesday, December 7, 2010

नेताजी सुभाष और डॉ. प्रहलाद राय, काव्यमय श्रद्धांजलि

छत्तीसगढ़ के डॉ. प्रहलाद राय अग्रवाल (जन्म 4 दिसंबर 1935 एम.बी.बी.एस. 1959 ) की 2009 में प्रकाशित रचना 'महाकाव्य- नेताजी सुभाष चन्द्र बोस' पठनीय कृति है. डॉ. अग्रवाल पेशे से चिकित्सक हैं और हिंदी के डॉ. प्राध्यापकों की तरह लेखन उनकी मजबूरी नहीं है. प्रस्तुत रचना उनके सहज और अनायास उदगार हैं. इस लेखन में प्रेरक शक्ति नेताजी के प्रति उनकी श्रद्धा है. अनायास इसलिए क्योंकि विषय के जानकारों की सम्मति प्रकाशन के पूर्व ले लेने पर कुछ चूकों से बचा जा सकता था. कृति को महाकाव्य शीर्षक दिया गया है जो अनुचित प्रतीत होता है क्योंकि महाकाव्य में सर्ग आधारित विभाजन होता है. संदर्भित रचना में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जीवनी कालक्रम से तिरेसठ कविताओं में व्यक्त की गयी है. सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक उड़ीसा में हुआ था. पुस्तक में जन्मस्थान के रूप में कोडालिया (पृष्ठ vi ) का वर्णन है. पृष्ठ vii पर 1939 के कांग्रेस अधिवेशन स्थल के रूप में त्रिपुरा का वर्णन है. वास्तव में यह अधिवेशन जबलपुर की बाहरी सीमा पर त्रिपुरी नामक स्थान पर हुआ था. स्टेनो और धर्मपत्नी के रूप में कु. एमिली शैकन (पृष्ठ vi ) का वर्णन है. सही नाम एमिली शेंकल है. पृष्ठ 58 पर वर्णन है की सुभाष को अंग्रेजी सरकार ने 13 जनवरी 1933 को भारत से निष्काषित कर दिया था. ह अतिरंजना है. इस समय सुभाष अपनी चिकित्सा के लिए स्वेच्छा से विदेश गए थे.


डॉ. अग्रवाल की रचना वीर नायक की कथा है. इस गाथा में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस समग्रता में चित्रित किये गए हैं. विवेकानंद के साहित्य से सुभाष का लगाव प्रभावी रूप में लिखा गया है. कुछ और भी साम्य है. दोनों का जन्म जनवरी में हुआ था. दोनों बांग्लाभाषी होते हुए वैश्विक प्रभाव छोड़ने में सफल रहे. सुभाष लगभग 5 वर्ष के थे तब विवेकानंद का देहावसान हुआ था. सुभाष के लिए विवेकानंद गुजरे ज़माने के दार्शनिक नहीं थे बल्कि कीर्तिमान भारतीय थे. विवेकानंद को पढ़कर सुभाष की धार्मिक जिज्ञासा प्रबल हुई. सही गुरु की तलाश में



उन्होंने गृहत्याग भी किया. परिवार वाले रोये और बिलखे. तब परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होती थी लेकिन इससे उनकी महत्ता कम नहीं होती थी. सुभाष ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा 1937 में An Indian Pilgrim के नाम से लिखी. इस तरह की यात्रायें और गोपनीयता, सर्वस्व का त्याग और अबूझ की तलाश सुभाष के जीवन यात्रा की अनिवार्यता बन गयी. देश की स्वतन्त्रता के लिए सुभाष कुछ भी कर सकते थे. यह कुछ भी कर सकना कामयाब हुआ क्योंकि अंग्रेजी सरकार की फ़ौज में बलवे की भावना स्थायी तौर पर घर कर गयी. आज़ाद हिंद फ़ौज के बाद रायल इन्डियन नेवल म्युटिनी ने अंग्रेजी सरकार को कंपा दिया. अब फ़ौज का आखिरी सहारा भी भरोसे का नहीं रहा था. माउन्टबेटन को जल्दबाजी में वायसराय बना कर लाया गया ताकि भारत को आज़ादी दे कर अँगरेज़ यहाँ से प्रतिष्ठापूर्वक निकल सकें. साम्राज्य को सांघातिक चोट पहुचाने का कार्य सुभाष चन्द्र बोस ने किया था और इस वीर सेनानी के श्रद्धालु कवि हैं डॉ. प्रहलाद राय अग्रवाल जिन्होंने समर्पण के विचार से कवितायेँ रची, प्रकाशित किया और सुधी पाठकों तक पहुंचाया. इस सफल कार्य के लिए उन्हें ढेरों बधाईयाँ.





Wednesday, December 1, 2010

उधम सिंह, इंदिरा गाँधी और बाबू नवाब सिंह




क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास में एक से बढ़ कर एक योद्धा हुए हैं. सब ने अपनी जिंदगी कुर्बान की देश के नाम पर सब को बराबर प्रसिद्धि नहीं मिली. यह 1857 के संग्राम के बारे मे भी सच है. वीर नारायण सिंह को वह प्रसिद्धि नहीं मिली जो वीर कुंवर सिंह एवं साथियों को मिली. मानवीय आधार पर वीर नारायण सिंह अधिक सहानुभूति के हक़दार हैं. क्रांतिकारी जीवन में भी भाग्य काम करता है. जो प्रसिद्धि और श्रद्धा शहीदे आज़म भगत सिंह को मिली वह मास्टर सूर्य सेन को भी नहीं मिली जिसके वह हक़दार थे. इसी तरह के एक और क्रांतिकारी हैं सरदार और शहीदे आज़म उधम सिंह. इनके जीवन की महत्वपूर्ण विशेषता है सही अवसर के इंतज़ार में तैयारी करते हुए प्रतीक्षा करते रहना. अन्य क्रांतिकारी व्यक्तियों और संगठनों में पाई जाने वाली अधीरता का नामो निशान नहीं मिलता है. वे इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्हें अपने परिवेश में देशभक्ति से भरे नेता या रोल माडल उपलब्ध नहीं थे. जहां तक परिवार की बात है वह तो था ही नहीं.

उधम सिंह का जन्म पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में सरदार टहल सिंह के घर हुआ था. टहल सिंह का शुरूआती नाम चुहाड़ सिंह था. अमृत छकने के बाद उनका नाम टहल सिंह रखा गया. परिवार की छोटी सी खेती बाड़ी थी. टहल सिंह के लिए खेती बाड़ी काफी नहीं थी. परिवार को आगे भी बढ़ाना था. रोजगार के लिए पूँजी उपलब्ध नहीं थी. इस हालत में टहल सिंह ने रेलवे की नौकरी कर ली. कोई बड़ा पद नहीं था. बड़ी जिम्मेदारी भी नहीं थी. सुनाम के पड़ोसी गाँव उपाल के रेलवे क्रासिंग पर चौकीदारी करनी थी. चौकीदार इसलिए रखे जाते थे ताकि गाड़ियों के आने जाने के समय सड़क मार्ग से आने वाले लोगों को टकराने से बचाया जा सके और रेल संपत्तियों की रक्षा भी की जा सके. इस वर्णन से सरदार टहल सिंह उर्फ़ चुहाड़ सिंह की बौद्धिक- आर्थिक हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकना मुश्किल नहीं है.

उधम सिंह के बड़े भाई का नाम मुक्ता सिंह था. बाद में उनका नाम साधू सिंह रखा गया. उधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था. दोनों भाइयों को अनाथ करते हुए माता संसार से कूच कर गयीं. माता जी के पीछे पीछे सरदार टहल सिंह भी गुजर गए. जो छोटा सा आशियाँ था वो भी उजड़ गया. भरी दुनिया खाली हो गयी. कोई चारा नहीं था. इस हालत में भाई किशन सिंह रागी ने दोनों भाइयों को अमृतसर के खालसा अनाथालय में भर्ती करा दिया. इसी अमृतसर को पृष्ठभूमि में रखते हुए चंद्रधर शर्मा "गुलेरी" ने उसने कहा था जैसे प्रख्यात रोमांटिक कहानी की रचना की थी. यह कहानी इतनी हिट हुई की बाद के दिनों में बिमल राय ने सुनील दत्त और नंदा को कास्ट करते हुए 1960 में फिल्म का निर्माण किया था. बहरहाल इन दोनों भाइयों की जिन्दगी में रोमांस और एडवंचर का नामों निशान तक नहीं था. दोनों भाइयों को जीवन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए तरह तरह की शिक्षा दी जाने लगी. साधू सिंह तो आत्मनिर्भर क्या होता, दुनिया छोड़ चला. 1917 में साधू का भी स्वर्गवास हो गया. सरदार उधम सिंह पूरी तरह से अकेले हो गए. पर इसने हिम्मत नहीं हारी. पढाई जारी रखी और 1918 में मैट्रिक (अभी का दसवी) पास कर लिया.

1919 के साल ने उधम सिंह के जीवन में बड़े बदलाव लाया. जलियाँ वाला बाग़ में 13 अप्रैल के दिन सैकड़ों मासूमों को निर्मम जनरल डायर ने गोलियों से भून दिया. उधम सिंह और अनाथाश्रम के साथी सभा में पानी बाँट रहे थे. संयोगवश गोली चलने के कुछ देर पहले ही वो वापस हो चुके थे. इस निर्मम हत्याकांड ने सारे देश को उद्वेलित कर दिया. जिनके अपने इस जघन्य घटना में मरे वे तो गुस्से में थे ही, राष्ट्रवाद से प्रेरित युवा भी पीछे नहीं थे. उधम का अपना कोई बचा ही नहीं था जो इस हादसे का शिकार होता. तब भी इस घटना ने उसके मन में साम्राज्यवाद के विरुद्ध नफरत को स्थापित कर दिया. उधम ने अनाथाश्रम छोड़ दिया. अधिकाँश लोगों के जीवन की समस्या यह होती है कि उनके पास कोई लक्ष्य नहीं होता. भटकाव और बोरियत से जीवन बोझिल हो जाता है या कई तरह के प्रयोग शुरू हो जाते हैं. पर उधम सिंह के साथ ऐसा नहीं था. उन्हें अपने जीवन का लक्ष्य मिल चुका था, साम्राज्यवादी शासन और माइकल डायर से प्रतिशोध. यह मनःस्थिति उधम सिंह को क्रांतिकारी राष्ट्रवादी मार्ग पर ले गयी. वे भूमिगत आन्दोलन में सक्रिय हो गए.

इस समय भारत के अंदर और बाहर क्रांतिकारी आन्दोलन का जोर बढ़ा हुआ था. उधम सिंह का लक्ष्य डायर को मारना था. इसके लिए उन्हें देश छोड़ना ही था. 1920 में वे अफ्रीका पहुंचे और 1921 में नैरोबी के रास्ते संयुक्त राज्य अमेरिका जाने का प्रयास किया. वीसा नहीं मिला तो वापस भारत लौट आये. 1924 में उधम सिंह अमरीका पहुचने में सफल हो गए. भारत में ग़दर आन्दोलन की असफलता के बाद भी अमरीका में उन दिनों शेष बची ग़दर पार्टी सक्रिय थी. उधम सिंह उसमें शामिल हो गए. राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रियता ने उनके संपर्कों में वृद्धि की. 1927 में तमंचों, गोली-बारूद और 25 साथियों के साथ उधम HSRA का साथ देने भारत वापस आये. HSRA भगत सिंह वाला संगठन था जो तबतक अपनी सक्रियता के चरम पर पहुँच चुका था. भारत लौटने के तीन महीने के भीतर ही उधम सिंह को अवैध हथियारों और ग़दर पार्टी के प्रतिबंधित साहित्य के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें पांच साल की कैद हुई. अमृतसर जेल के भीतर से ही उधम भगत सिंह के कार्यों, मुक़दमे और फांसी के बारे में सुनते रहे. भगत सिंह की फंसी वाले साल ही वे अक्तूबर में जेल से रिहा हुए. आन्दोलन का कठोर दमन हो चुका था. उधम अपने गाँव वापस चले गए किन्तु वहां रहना अब आसन नहीं रह गया था. जेल की सजा काट चुके उधम पर पुलिस कड़ी नज़र रख रही थी. थाने में रोज़ हाजिरी के नाम पर प्रताड़ना झेलनी पडती थी. तब उधम ने अमृतसर जाने का फैसला किया. अमृतसर में उधम ने अपना नाम मोहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया और साईन बोर्ड पेंट करने की दुकान खोल ली.

इन सब कार्यों घटनाओं के बीच उधम अपने लक्ष्य को कभी भूले नहीं. अपने लक्ष्य को पाने के तैयारी में उन्होंने अपने जीवन का लम्बा अरसा बिता दिया. 1933 में उधम सिंह ने ब्रिटिश भारत की पुलिस को चकमा दे दिया और कश्मीर चले गए. वहां से वे जर्मनी हुचे. फिर इटली में कुछ महीने बिताने के बाद फ़्रांस, स्वित्ज़रलैंड और आस्ट्रिया होते हुए 1934 में इंग्लैं पहुंचे. वहां पहुँच कर उन्हों ने पूर्वी लन्दन की एडलर स्ट्री में एक घर किराये पर लिया और एक कार खरीदी. उधम किसी तरह की जल्दबाजी में नहीं थे. माइकल डायर को मारने के लिए वे अच्छे मौके की तलाश में थे. वे अधिकतम नुकसान करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने लम्बा इंतज़ार किया था. अब वे हड़बड़ी में मौका गवांना नहीं चाहते थे. आखिरकार उन्हें मनपसंद मौका अप्रैल 1940 में मिल ही गया.

तेरह मार्च 1940 को कैक्सटन हाल में इस्ट इंडिया असोसिएशन और रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी का संयुक्त अधिवेशन था. माइकल डायर को इसमें वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था. उधम सिंह ने इस सभा में प्रवेश की व्यस्था कर ली. पिस्तौल को किताब में छुपाकर सभा में ले गए. डायर मंच पर भारत मंत्री लार्ड जेटलैंड से बात करने के लिए बढ़ा. उधम सिंह ने पिस्तौल निकाल ली और दो गोलियां डायर पर दाग दीं. डायर वहीँ ढेर हो गया और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए. उधम सिंह ने अब जेटलैंड पर भी दो गोलियां दाग दीं. जेटलैंड घायल हुए. एक-एक गोलियां सर लूइस और लार्ड लेमिंगटन को भी मारीं. ये दोनों भी घायल हो गए. गोलियां ख़त्म हो गयीं. उधम सिंह भागे नहीं. कोशिश भी नहीं की. नारा भी नहीं लगाया. इतना भर पूछा कि कौन- कौन मरे? उन्हें मौका--वारदात से गिरफ्तार कर लिया गया.


1 अप्रैल 1940 को उधम सिंह पर औपचारिक रूप से हत्या का अभियोग लगाया गया. इसी बीच जेल में उधम सिंह ने भूख हड़ताल कर दी. बयालीस दिन तक उन्होंने खाना नहीं खाया. जेल अधिकारियों ने बलपूर्वक उन्हें तरल आहार दिया. त्वरित सुनवाई के बाद इस मुक़दमे में उधम सिंह को मौत की सजा दी गयी. 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को फांसी दे दी गयी. उन्हें उसी दोपहर जेल के अहाते में ही दफना दिया गया.


सत्तर के दशक में उधम सिंह के अवशेषों को भारत वापस लाने की मुहिम शुरू हुई. सुल्तानपुर लोधी (पंजाब) के विधायक सरदार साधू सिंह थिंड ने इसका नेतृत्व किया था. उन्होंने प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी को राज़ी कर लिया की भारत सरकार की तरफ से ब्रिटिश सरकार को औपचारिक अनुरोध किया जाये. भारत सरकार के विशेष दूत के रूप में साधू सिंह थिंड को लन्दन भेजा गया. जुलाई 1974 को उधम सिंह के अवशेष वापस भारत लाये गए. हवाई अड्डे पर शहीद उधम सिंह की अस्थियों को रिसीव करने वालों में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष शंकर दयाल शर्मा और पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह शामिल थे. प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की ओर से भी पुष्प चक्र समर्पित किया गया. उनका दाह संस्कार उनके पैत्रिक गाँव में किया गया और राख को सतल में बहा दिया गया.

आगे की पोस्ट में एक आम स्वतंत्रता सेनानी - बिहार के बाबू नवाब सिंह