Thursday, November 11, 2010
छत्तीसगढ़ और गाँधी मीमांसा...... डायमंड जुबली
1935 के साल सड़क दुर्घटना में हुई टूट फूट के कारण बिस्तर पर सिमटे रहने की मजबूरी में समय बिताने के लिए लेखक ने पुस्तक लिखने की ठानी. स्वास्थ्य लाभ के लिए धार्मिक विषय पर लेखन बेहतर हो सकता था पर पं. राम दयाल तिवारी ने पुण्य लाभ कमाने की जगह अपने मनपसन्द विषय ''गाँधी जी की विचारधारा" पर लिखना तय किया. 1935 तक का गाँधी जी का जीवन आधा अधूरा ही है. उन्हें अबतक सार्वकालिक प्रसिद्धि नहीं मिली थी. इस सीमित कालखंड में गाँधी जी की मीमांसा करने का अर्थ है कि लेखक को कांग्रेसी प्रांतीय सरकारों, भारत छोडो आन्दोलन, सत्ता हस्तांतरण की शिखर उपलब्धि तथा सांप्रदायिक हिंसा के बीच "वन मैन आर्मी" जैसे महत्वपूर्ण पहलू कल्पना में भी आ नहीं सकते. साधन संपर्क भी तब सीमित ही थे और छत्तीसगढ़ भारत में बौद्धिक तौर पर अग्रगामी नहीं माना जाता था. यह तिवारी जी की विलक्षण प्रतिभा ही है कि इन सीमाओं के बावजूद पुस्तक में कहीं भी अह्सासे कमतरी के दर्शन नहीं होते.
"गाँधी मीमांसा" इन अर्थों में भी खास है कि इस में दावे के बाद भी आलोचना बहुत कम है, नगण्य. गाँधी जी की कडवी आलोचना तो वामपंथी खेमे से जुड़े लेखकों या बसपा के राजनेताओं ने ही की है जो निराधार और बेसिर पैर के स्तर तक पहुँच जाता है. इस धारा में प्रारंभिक और प्रभावी तौर पर ब्रितानी कम्युनिस्ट रजनी पाम दत्त की पुस्तक India Today का नाम आज भी महत्वपूर्ण है. तिवारी जी की पुस्तक में तो गाँधी जी के प्रति भक्ति और सहानुभूति का रवैया प्रभावी है, परन्तु चारण शैली में नहीं. इस सहानुभूति का एक बड़ा कारण तो आधार सामग्री के रूप में गाँधी जी की आत्मकथा का प्रयोग है. गांधीवादी सामग्री के सन्दर्भ में सचेत साहित्यकार के नजरिये से भारतीय सभ्यता के पतन के कारणों की पड़ताल की गयी है. सभ्यता का पतन राजनैतिक और सैनिक कम है तथा नैतिक आधिक है. गाँधी जी की आत्मकथा के आत्म स्वीकृति वाले प्रसंगों का वर्णन है. गाँधी साहित्य से एक महत्वपूर्ण सूचना यह भी निकाली गयी है कि लन्दन में रहते हुए ही गाँधी जी ने महात्मा बुद्ध और उनके धर्म के बारे में पढ़ा, गीता पढ़ी और फिर बाइबल भी. गाँधी जी कि फीलिंग है कि बाइबल से नया कुछ सीखने को नहीं मिला, नम्रता के सिवा.
इस तुलनात्मक अध्ययन से गाँधी जी की आस्था हिन्दू धर्म में स्थायी तौर पर बन गयी. वे समस्त सुधारों के लिए तैयार हो सकते थे पर धर्म परिवर्तन के लिए नहीं. इस दिशा में उन पर अफ़्रीकी प्रवास के दौरान किये गए ईसाई प्रयास असफल हुए थे. अपने धर्म के प्रति अटूट आस्था रखते हुए गाँधी जी दूसरे धर्मों के प्रति सहअस्तित्व की भावना रखते थे. भारतीय मुस्लिम समाज के बीच भी समर्पित गांधीवादी थे परन्तु हठधर्मिता के कारण बड़ी समस्या हो रही थी. इसी तरह की एक समस्या दलित जातियों की थी. दलितों को हिन्दू समाज के अंदर उनका समुचित स्थान दिलाने के लिए गांधी जी तपस्या कर रहे थे. उन्होंने कहा था "अम्बेडकर महोदय मेरे मुंह पर यदि थूक भी दें तो भी जो अनाचार सवर्ण हिन्दुओं ने हरिजनों पर किया है, इसका प्रायश्चित्त पूरा न पड़ेगा." (पृष्ठ-83 ) इस कथन में निहित सदाशयता को अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा जैसे युगांतरकारी राजनेता आज समझ पा रहे है परन्तु रामदयाल तिवारी जैसे मीमांसक ने पहले ही समझ लिया था. गांधी जी के नशा विरोधी पहलू को भी अच्छी तरह से विश्लेषित किया गया है. सजग पाठक मीमांसक तिवारी जी की दूरदर्शिता का कायल हो जाता है. तिवारी जी ने लिखा है कि गांधीवादी अहिंसा का भारतीय समाज पर प्रभाव स्थाई नहीं होने वाला है (पृष्ठ 302). "राजनैतिक क्षेत्र में स्वराज के लिए लड़ने वाले संसारी लोगों पर उसका (अहिंसा धर्म) स्थायी प्रभाव कुछ भी नहीं पड़ सकता" (पृष्ठ 303 ). वर्तमान समाज की चतुर्दिक हिंसा इस उक्ति की सत्यता को प्रमाणित करती है. उनके विश्लेषण में अहिंसा सिद्धांत के चार प्रवर्तक हैं- महावीर, बुद्ध, ईसा और गाँधी. इसी तरह तिवारी जी समझ पाते हैं कि पश्चिम का साम्यवाद मजदूरों का आर्थिक स्वार्थवाद है. पुस्तक के प्रारम्भिक हिस्से में ही लिखा गया है - "संभावना है कि ... आगे चलकर हम अपने प्राचीन आध्यात्मिक तथा नैतिक संस्कारों से शून्य होकर अपने हृदय और बुद्धि को पश्चिम की नैतिकता-शून्य राजनीति तथा राष्ट्रनीति के सुपुर्द कर देंगे" (पृष्ठ 22 ). महात्माजी की अहिंसा रूढिगत धार्मिक अहिंसा नहीं है. महात्मा जी की सहमति से गाय के बीमार बच्चे को असह्य पीड़ा से मुक्ति देने के लिए विष दिया गया. पागल कुत्तों की भी हत्या की गयी (पृष्ठ 143). तिवारी जी की एक महत्वपूर्ण टिपण्णी है कि इस्लामी समाज में पान-इस्लामिक भावना है. वे अपने पुराने दिनों की सत्ता तथा गौरव की वापसी चाहते है. हिन्दुओं से मिलकर भी नहीं मिलते (पृष्ठ 103). मुस्लिम समाज ने मौलवी और फतवों के असर पर भी वे गौर करते हैं. समकालीन समाज और राष्ट्रीय आन्दोलन का आइना है गांधी मीमांसा. पुस्तक पढ़ते हुए यह याद आता है कि तिवारी जी के कालखंड में शहीद भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा, सूर्य सेन, सुभाष चन्द्र बोस, डा. राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश, रविशंकर शुक्ल, सुन्दरलाल शर्मा .............. हुए थे जो गांधीवाद के पक्ष और विपक्ष में संशोधन ला रहे थे. अच्छा होता कि मीमांसक अपनी रचना में इन सहमत-असहमत सुरों को भी स्थान दे पाते. पुस्तक का आकार थोड़ा और बढ़ जाता पर पठन-विश्लेषण आनंद और बढ़ जाता. मेरी जानकारी में पहली बार गांधीवाद की मीमांसा इस विशाल स्तर पर की गयी है. पुस्तक अपनी विशालता के बावजूद पठनीय है.
पुनश्च-
रायपुर की प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक पं .राम बगस तिवारी के घर 23 जुलाई 1892 को राम दयाल तिवारी का जन्म हुआ था. 1911 में बी.ए. की परीक्षा पास की. इसी समय पिता की मौत हो गयी. वकालत पढना चाहते थे पर संभव नहीं हो सकता था इसलिए उन्होंने रायगढ़ के स्टेट हाई स्कूल में टीचर की नौकरी कर ली. छायावाद के प्रवर्तक पं. मुकुटधर पाण्डेय उन दिनों उसी स्कूल के छात्र थे. मास्टरी के पैसे से तिवारी जी ने वकालत की शिक्षा ली. 1915 में वकालत करने के लिए वे रायपुर लौटे. तिवारी जी के अंतिम दिन परेशानी में बीते. 1935 में स्वयं दुर्घटना के शिकार हुए. 1940 में पत्नी का निधन हुआ. 1941 में दो पौत्रियों का और 1942 में पुत्री राधा बाई का. इन सब की चिकित्सा में पैसे भी काफी खर्च हुए थे. तिवारी जी शारीरिक और मानसिक तौर इन मौतों से टूट गए थे. इन सारी टूटनों ने पचास वर्ष की छोटी आयु में ही उनकी जीवन लीला 21 अगस्त 1942 को समाप्त कर दी.
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सुंदर लिखा है
ReplyDeletenice one......aapne bahut mehnat se likha hai,,,,,,ye padhkar samajh me aata hai.tathyoan ko ek lekh me samet diya hai aapne.bahut kam log hai jo tiwari ji ke baare me jante hai, mai khud bhi unme se ek hu.........गांधीवादी अहिंसा का भारतीय समाज पर प्रभाव स्थाई नहीं होने वाला है.
ReplyDeleteआपने वाकई इसे मिहनत से तैयार किया होगा . सुन्दर और पठनीय बन सका है . मुझे लगता है कि थोड़ा आलोचनात्मक होने दें . एक खास दूरी से पुस्तक पर अपनी टिप्पणी दें तो और बेहतर . वैसे यह मेरी निजी राय अथवा मांग हो सकती है . एक शब्द में कहें तो 'परिचयात्मक' की जगह 'समीक्षात्मक' बनने दें .
ReplyDeleteपंडित जी का परिचय, उनकी कृति के सार-सार अंशों का उल्लेख व कृति की समीक्षा प्रस्तुत कर आपने इस संपूर्ण मीमांसा को नेट पाठकों के लिये सर्वसुलभ बनाया इसके लिये धन्यवाद भईया.
ReplyDeleteतिवारी जी का काम वाजिब महत्व सहित उभरा है, पोस्ट में चित्र मेरे जैसे पाठक के लिए उपयुक्त ही नहीं, जरूरी भी हैं, इनसे पोस्ट का मूड पकड़ने में सहायता हुई.
ReplyDeleteComment on Facebook By Vandna Sharma--
ReplyDeleteपं रामदयाल तिवारी के अथक परीश्रम को आपके
श्रम का प्रकाश मिला गाँधी के विचारों,कार्यों को
पुन: पुन:प्रस्तुत एवम स्मरण करने के लिए
बहुत बहुत साधुवाद ........सर
Aapne bahut hi sunder tarike se suchnaparak jankari pesh kiya hai.Badhai.
ReplyDeletebhuat sundar hai rajendra kashayap
ReplyDeleteachchha prayas,badhai.-ranjan zaidi/alpsankhyaktimes-II.blogspot.com
ReplyDeleteछततीस गढ़ और गाँधी मीमांसा ... अद्भुत जानकारी जो मुझे नहीं थी.सर जी ,रायपुर में आजाद चौक के आगे राम दयाल तिवारी स्कूल है. हजारों छात्र उस स्कूल से पढ़कर निकले होंगे. शायद ही किसी को इतनी ज्ञान वर्धक जानकारी होगी, संभवतः स्कूल में भी होगी या नहीं? मुझे पहली बार यह जानकारी हुई है. अप्रतिम !!!
ReplyDeleteKutumb,
ReplyDeleteNow, you have started scaling a new height. Congrats and all the very best in your new venture.
ashoksinghisking@gmail.com
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजानकारी के लिए आभार। लेकिन तिवारी जी मुझे कुछ हद तक पूँजीवादी-धार्मिक-शोषक समाज से अलग नहीं हो रहे, लगते हैं। साम्यवाद का घटिया अर्थ लगाया है। यह तो वैसे ही है जैसे ओशो रजनीश कहते हैं कि मार्क्सवाद अमीरों से ईर्ष्या भर है।
ReplyDeleteअनुमान तो सही भी लगाया है तिवारी जी ने लेकिन ऐसा अनुमान अंग्रेजों के आने के कुछ दिन बाद से ही लेखकों ने शुरु कर दिए थे लगाने। नाम बताने में असमर्थ हूँ।
गाँधी, बेचारे गाँधी। अपनी एक बात दुहरा रहा हूँ- गाँधी भारत के सबसे बदनसीब नेता हैं। जिन्हें दलित, हिन्दू, मुस्लिम सब ने अस्वीकार कर दिया लेकिन उनका नाम चल रहा है।
पठनीय
ReplyDeleteComplete knowledge in short
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