स्वतंत्रता संग्राम की क्षेत्रीय विभूतियों पर संतुलित दृष्टि से रचा गया साहित्य और इतिहास अत्यल्प है। आंचलिक नायकों की अकूत प्रतिभा और तेजस्विता के बावजूद राष्ट्रीय नेताओं की तुलना में उन पर शोध एवं लेखन की मात्रा कम ही है। 'हमारे छेदीलाल बैरिस्टर' पर शोध ग्रंथ तैयार हुए थे, स्मारिका निकली थी परन्तु पहली बार पुस्तकाकार अधिकारिक जीवनी प्रकाशित हुई है। इस रेखांकन से क्षेत्रीय अस्मिता की पहचान और राष्ट्रीयता दोनों ही मजबूत होगी। पुस्तक जीवनी है, क्योंकि इसमें छेदीलाल जी के जीवन का वर्णन है, परन्तु कथ्य का फलक जीवनी की प्रचलित सीमा से अधिक व्यापक है।
वर्णन, प्रवाह और रोचकता की दृष्टि से पुस्तक में औपन्यासिक शैली का भरपूर निर्वाह हुआ है, तो लम्बे कालखंड ने कथा संदर्भ को महाकाव्यात्मक आधार दिया है। पूरी पुस्तक का मूल स्वर संघर्ष और वेदना है। नियति के निर्देश या ऋषि के श्राप के कारण नहीं बल्कि राजनैतिक महत्वाकांक्षा के अभाव में बैरिस्टर साहब दुनियावी तौर पर असफल होते हैं तथा राजनैतिक शक्ति के शिखर पर नहीं पहुंच पाते हैं। पुस्तक का प्रारंभ उनकी मृत्यु के प्रसंग से होता है। अपनी सशक्तता के बावजूद, कथा नायक की मृत्यु का प्रसंग पाठक के लिए दुखद शुरूआत है। जीवनी में दुख, कथा बीज (Leit Motif) की तरह उभरता है, जिसकी आवृत्ति अनेक रूपों में होती है। भरपूर संघर्ष के बाद कथा नायक के जीवन में थोड़ी सफलता आती है कि अचानक एक अन्य समस्या आ खड़ी होती है। विजय का उत्सव मनाने का अवसर नियति ने नहीं दिया बैरिस्टर छेदीलाल को क्या, उनके पूर्वजों को भी।
पारिवारिक कथा प्रसंग वहां से प्रारंभ होता है जहां से भारतीय इतिहास में मध्यकालीन शासन व्यवस्था ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रशासनिक व्यवस्था के सामने पराजय की त्रासदी भोग रही होती है। राजस्थान में इस्ट इंडिया कंपनी की शक्ति स्थापना के उपरांत राजपूत राजाओं को भी अपनी सेना भंग कर देने के लिए विवश किया गया। बड़े और समझौतावादी राजा तो बने रहे, दुर्बल ही सही, परन्तु संघर्ष करने वालों का सब कुछ उजड़ गया। संकीर्ण दृष्टि के सैनिकों ने पिंडारियों की तरह लूटमार तथा चोरी-डकैती का पेशा अखितयार कर लिया लेकिन उनके वीरोदात्त नायकों ने अधःपतन की बजाय राजस्थान के बाहर कैरियर की तलाश शुरू की। छत्तीसगढ़ अंचल ने समय के मारे और वक्त के सताये कितने ही कर्मठ परिवारों को अपने आश्रय में सहेजा है।
छेदीलाल जी के पुरखे अंग्रेजों के कारण राजस्थान से विस्थापित हुए तो उसी अंग्रेजी सत्ता के विरोध में बैरिस्टर साहब समग्रता में सक्रिय रहे। संघर्ष ही परिवार की नियति थी। उनके पिता का जन्म से ही गूंगा होना त्रासदी के क्रम को टूटने नहीं देता है। गूंगे व्यक्ति का विवाह हुआ और पहला पुत्र विछोह दुख देकर ईश्वर को प्यारा हो गया। गूंगा कैसे दुख व्यक्त करे? दूसरे पुत्र के रूप में छेदीलाल का जन्म हुआ। वैद्य की दवा का असर नहीं हो रहा था। बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है जब छेदीलाल जी के चाचा दीवान साहब छत्तीसगढ़ी में देवी के सामने अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं और अपना धर्म त्याग कर पठान बनने का निश्चय करते हैं पर शिशु भी बच जाता है और परिवार का धर्म भी। मरणासन्न शिशु पर बस्ती के बुजुर्ग कोष्टा की औषधि का चमत्कारिक प्रभाव हुआ।
छेदीलाल जी के बढ़ने और पढ़ने जाने का प्रसंग क्षेत्रीय परिवेश में खूबसूरती से उकेरा गया है। ये हिस्से कथा प्रसंग में अनवरत आनंद के हैं। परिवार पर दुख की छाया नहीं है। छेदीलाल जी के विवाह के प्रसंग का वर्णन तो इतना सचित्र है कि आज की भाषा में वह शादी के वीडियो कैसेट से अधिक आनंद और जानकारी देता है, लोक रस्मों और रीतियों की। विवाह के कुछ समय पश्चात गौना होता है। उनके पुत्र का जन्म होता है। इलाहाबाद से वे अकलतरा आते हैं। पत्नी और पुत्र से मिलकर वे इलाहाबाद लौटते हैं। किसी भी अंतरंग को वे नहीं बता पाते हैं कि उन्होंने अध्ययन के लिए इंग्लैण्ड जाने का निश्चय किया हुआ है। अपनी योजना के अनुसार वे इंग्लैण्ड के लिए निकल पड़ते हैं। यहां से उनके जीवन में दुख की निश्चित मात्रा नियमित अंतराल पर आने लगती है। बाधाएं दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों ही प्रकार की है। उनके इंग्लैण्ड में रहते ही उनके पुत्र की मृत्यु हो जाती है। उनके जीवन में आने वाले दुखों की पहली बौछार उनकी प्रथम पत्नी पर पड़ी है। सारे दुखों की आखिरी किश्त उन्हें वैधव्य के रूप में प्राप्त होती है। विदेशी मेम के रूप में सौत की आशंका से भयभीत पत्नी के साथ बैरिस्टर साहब की प्रथम पत्नी के पक्ष में सहज सहानुभूति उमड़ती है तथा पूरी पुस्तक में एक भी प्रसंग नहीं है जहां उनके चित्रांकन में हल्कापन दिखता हो। निश्चय ही वे छत्तीसगढ़ की त्यागमयी और सहिष्णु महिलाओं के लिए आदर्श बनी रहेंगी।
समस्याओं की आवृत्ति में एक कारण छेदीलाल जी का कैरियरिस्ट न होकर इमोशनल होना भी है। कैरियरिस्ट न होना स्पष्ट तौर पर तब बुरी बात न थी और घिसी-पिटी लकीर पर जीवन चलाना आज भी अच्छी बात नहीं मानी जाती है। अर्थोपार्जन को संपूर्ण ऊर्जा समर्पित करने की जगह उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और रामलीला के भव्य आयोजन, शिक्षण तथा आपदा के समय जनता की सहायता जैसे आर्थिक तौर पर नुकसानदेह कार्यों में धन और समय का निवेश किया। पुस्तक का अंत होते-होते प्रारंभिक बिन्दु आ जाता है। फ्लैश बैक पद्धति का सार्थक निर्वाह है। पुस्तक में बैरिस्टर साहब की मुकम्मल तस्वीर उभरती है तथा हमारा क्षेत्रीय परिवेश जीवन्त होता है। जीवनी के वे हिस्से, जहां बैरिस्टर साहब की गतिविधियों का राष्ट्रीय प्रांगण में वर्णन हुआ है, तथ्यात्मक त्रुटि के शिकार हुए हैं।
पृष्ठ ७० पर बताया गया है कि विलायत आते-जाते बैरिस्टर साहब का परिचय सुभाषचन्द्र बोस आदि से भी हुआ। जीवनी से ही ज्ञात होता है कि बैरिस्टर साहब ने १९१२ में एम.ए. पास कर बार-एट लॉ के लिए प्रवेश लिया तथा १९१४ में डिग्र्री लेकर भारत लौट आए। यह एक सुस्थापित तथ्य है कि सुभाषचन्द्र बोस ने १९१३ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। तब तक वे अपने परिवार के साथ कटक में रह रहे थे। इसके उपरांत कालेजी शिक्षा के लिए वे कलकत्ते चले गए। स्नातक की परीक्षा पास करने के उपरांत १९१९ के सितम्बर में बंबई से सिटी आफ कलकत्ता नामक जहाज से उन्होंने इंग्लैण्ड प्रस्थान किया था। छात्र सुभाषचन्द्र बोस से बैरिस्टर साहब का संपर्क कब हुआ यह बताया नहीं गया है। इंग्लैण्ड में संपर्क होना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि बैरिस्टर साहब के इंग्लैण्ड से लौटकर आने के पांच वर्षों उपरांत सुभाषचन्द्र बोस इंग्लैण्ड गए थे तथा आई.सी.एस. की परीक्षा देने के साथ-साथ कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था।
दूसरी बड़ी चूक भी सुभाषचन्द्र बोस से ही संबंधित है। १९३९ में त्रिपुरी अधिवेशन के लिए सुभाषचन्द्र बोस चुने गए। उन्होंने गांधी जी के उम्मीदवार को चुनाव में पराजित किया था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में यह शामिल है तथा इसके निहितार्थों पर संगोष्ठियों में आज भी वाद-विवाद होता है। इस महत्वपूर्ण अधिवेशन हेतु बैरिस्टर साहब को जी.ओ.सी. बनाया गया था, जो उनके बढ़ते राजनैतिक महत्व की सूचना देता है। यहां तथ्यात्मक त्रुटि यह है कि पृष्ठ १९४ के अनुसार इस चुनाव हेतु गांधी जी के उम्मीदवार पी.डी. टंडन थे, जबकि निर्विवाद तथ्य यह है कि गांधीजी के उम्मीदवार डॉ. पट्टाभिसीतारमैया थे, जिन्होंने बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास लिखा। इसी तरह पृष्ठ १३२ पर उल्लिखित चौरा-चौरी की दुर्घटना १९२३ में नहीं १९२२ में हुई थी। पृष्ठ ९८ पर तिलक के विषय में बताया गया है कि वे होम रूल के मुद्दे पर साम्राज्यवादी सरकार के झांसे में आ गए थे। तिलक उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जिन्हें ब्रिटिश शासन के साम्राज्यवादी स्वरूप में रत्ती भर भी संदेह नहीं था। उसी पृष्ठ पर बताया गया है कि मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में जलियांवाला बाग की रिपोर्ट देने के लिए बनी समिति में बैरिस्टर साहब को सम्मिलित किया गया। परन्तु २५.०३.१९२० को प्रकाशित यह रिपोर्ट गांधी जी की लिखी मानी गई है। समिति के तीन अन्य सदस्यों के रूप में सी.आर.दास, तैय्यब जी एवं एस.आर. जयकर के हस्ताक्षर गांधी जी के हस्ताक्षर के साथ रिपोर्ट के अंतिम पृष्ठ पर हैं। क्षेत्रीय अस्मिता के इतिहास और राष्ट्रीय कालक्रम के बेहतर संयोजन की आवश्यकता का महत्व स्थायी और अनिवार्य है, मात्र तात्कालिक विशेषता या वैयक्तिक विशेषज्ञता नहीं (संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन की पत्रिका 'बिहनिया' के अंक ६, सितम्बर २००७ में प्रथमतः प्रकाशित)
समीक्षा कितनी रचनात्मक हो सकती है, मैं इसे बेहतरीन नमूना मानता हूं. फिर से पढ़ा, क्या कहूं 'और पुरानी हो कर मेरी और नशीली मधुशाला' है. राजस्थान से विस्थापन का पैरा साफ दृष्टि सहित, इतने संक्षेप में, मानों इतिहास के एक पूरे दौर का बेलाग बयान है. पात्र, चरित्र और लेखिका तो धन्य हैं ही, आपके इस लेखन के लिए और क्या कहूं.
ReplyDeleteबेहतरीन समीक्षा -आभार।
ReplyDeleteतथ्यपरक व रोचक . रचनात्मक समीक्षा .
ReplyDeleteआज बिलासुपर से दुर्ग वापस आते समय, मोबाईल से इस पोस्ट को पढ़ा, ननिहाल बिलासपुर क्षेत्र में होने के कारण, बचपन में अपनी मॉं के मुह से इस नाम को बार बार सुनते रहा हूं जिसके कारण से बैरिस्टर साहब से एक लगाव सा हो गया है, पुस्तक मिलेगी तो अवश्य पढ़ना चाहूंगा.
ReplyDeleteपुस्तक के संबंध में शास्त्रीय आलोचनाओं से परे, कृति से परिचय कराने का आपका अंदाज बहुत अच्छा लगता है भईया.
इसे ब्लॉग पर प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद.
आभारी हूं, श्री राहुल सिंह जी का, जिन्होंने इस पोस्ट की जानकारी दी।
ReplyDeleteपुस्तक नहीं पढ़ी, समीक्षा के माध्यम से ही बैरिस्टर साहब के बारे में तथ्यपूर्ण जानकारी मिली। हम छत्तीसगढ़ से भौगौलिक रूप से बहुत दूर हैं, लेकिन ऐसे व्यक्तित्व अंचल विशेष के ही नहीं, संपूर्ण देश की थाती हैं और हम सबको ऐसी विभूतियों से परिचित होना ही चाहिये।
स्थानीय और आंचलिक विभूतियों पर ऐसी सामग्री अब अतीत की बात हो गई है। व्यक्तिगत, सांस्थानकि, शासकीय - किसी भी स्तर पर अब ऐसी जीवनियॉं नहीं मिलतीं।
ReplyDeleteबैरिस्टर छेदीलालजी के बार में जानकारी तो अपनी जगह है ही, पुस्तक समीक्षा भी अपने आप में रोचक और ध्यनाकर्षित करनेवाली है, जैसा कि राहुलजी ने संकेत किया है।
राहुलजी! कोटिश: धन्यवाद।
इतना अच्छा पोस्ट बहुत दिनों के बाद पढने को मिला किसी पुस्तक को इतनी बारीकी से पढना वास्तव में पुस्तक पठन के प्रति रूचि का द्योतक है बैरिस्टर साहब हमारे ही नगर के थे यह हम सभी के लिए अत्यंत ही गौरव की बात है
ReplyDeleteराजस्थान के कई रजवाड़े देश के कई भागों में बिखर गये थे, मैंने कई जगहों के स्थानीय इतिहास में यह पाया है।
ReplyDeleteइतिहास के तथ्यात्मक पहलुओं का तार्किक प्रस्तुतीकरण।
क्षेत्रीय अस्मिता के इतिहास और राष्ट्रीय कालक्रम के बेहतर संयोजन की आवश्यकता का महत्व स्थायी और अनिवार्य है, मात्र तात्कालिक विशेषता या वैयक्तिक विशेषज्ञता नहीं. एक सार्थक और संतुलित समीक्षा जिससे पुस्तक और उसके नायक के लिए उत्सुकता जागती है..पठान हेतु मन अधीर होता है. राहुल भैया, आपके सौजन्य से इस तरह के साहित्य से भी मुखातिब होना हो रहा है आपको कोटिशः धन्यवाद.
ReplyDeleteमैं बहुधा इस बात को नहीं समझ पाता हूं कि उत्कृष्ट प्रतिभायें अंतत: शिखर पर क्यों नहीं पंहुंचती। स्वयम अपने विषय में यह प्रश्न बार बार उठता है कि उतना क्यों नहीं अचीव कर पाया जितना करना चाहिये था।
ReplyDeleteबैरिस्टर छेदीलाल के विषय में उक्त पुस्तक समीक्षा में एक सूत्र हाथ लगा -
"समस्याओं की आवृत्ति में एक कारण छेदीलाल जी का कैरियरिस्ट न होकर इमोशनल होना भी है।"
वास्तव में व्यक्तियों का आई.क्यू. ही नहीं, इमोशनल कोशेण्ट बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है उसकी सफलता में।
बैरिस्टर छेदीलाल के बारे में इस अत्यंत स्तरीय जानकारी के लिये धन्यवाद। पुस्तक के विशय में जिज्ञासा बन गयी है।
बैरिस्टर छेदीलालजी के बारे में पूर्व से ही बड़ी जिज्ञासा रही है. उनका घर देखा है. उनकी बिटिया से बात हुई थी परन्तु पुस्तक समीक्षा के रूप में इस आलेख को पढ़ कर बहुत कुछ जान पाया. इस आलेख की उपादेयता इस बात से भी है कि आदरणीय ज्ञानदत्त जी को एक बहुत बड़ा सूत्र हाथ लग गया.
ReplyDeleteइस रोचक पुस्तक के बारे में बताने का शुक्रिया।
ReplyDelete---------
आपका सुनहरा भविष्यफल, सिर्फ आपके लिए।
खूबसूरत क्लियोपेट्रा के बारे में आप क्या जानते हैं?
... saarthak va prasanshaneey charchaa !!!
ReplyDeleteमेरे लिए सौभाग्य की बात है की बैरिस्टर साहब मेरे ही नगर की महान विभूति थे उनके बारे में जितना लिखा पढ़ा जाये कम ही है बहुत ही अच्छी समीक्षा आपने की है निश्चित ही बैरिस्टर साहब एवं डॉ इन्द्रजीत सिंह जी जैसी विभूतियों के बारे में आज की पीढ़ी को बताया जाना चाहिए
ReplyDeleteराहुल जी ने आपके यहां भेजा, उनका ्धन्यवाद. पता नहीं ऐसे कितने ही नायक हैं जो छुपे ही रह गये..
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ की महान विभूति छेदीलाल बैरिस्टर की जीवनी से संबंधित पुस्तक की समीक्षा पढ़कर मन गर्व से भर उठा।
ReplyDeleteसमीक्षा गागर में सागर की तरह लग रही है।
समीक्षा की भाषा शैली उच्च काटि की है।
इस श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए आपके प्रति आभार।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteस्वतंत्रता संग्राम से जुडी क्षेत्रीय विभूतियों पर रचित साहित्य व् इतिहास की दुर्लभता निःसंदेह सोचनीय है.वजह मुझे लगता है व्यावसायिक साहित्य के दौर में स्वान्तः सुखाय के दौर में रच जाने वाला अन्यथा बाज़ार की डिमांड पर परोसा जाने वाला "आर्डर पर तैयार किया जाने वाला मॉल" भी है.छेदीलाल बैरिस्टर पर पुस्तकाकार जीवनी का प्रकाशन श्लाघ्य है. उनके जैसे जमीन से जुड़े संघर्षशील व् सेल्फ्मेड समाज के नायक अब नहीं है ऐसा तो कहना गलत होगा पर अँगुलियों पर गिने जाने लायक जरूर हैं.पिता का गूंगा होनाऔर छेदीलाल का बैरिस्टर बनना इन दोनों तथ्यों के बीच मनोवैज्ञानिक अंतर सम्बन्ध की तलाश की जानी चाहिए.ऐतिहासिक कथ्य-तथ्य संकलन के वक्त त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है जिसे नहीं होना चाहिए.रत्नावली सिंह एवं संस्कृति विभाग छग साधुवाद का पत्र है जिसने एक शीर्ष प्रेरक जीवन -प्रसंग को समय -सापेक्ष बनाया है.सर जी आपकी समीक्षा यथार्थ का पारदर्शी चित्रण है ... अति- सुन्दर.
ReplyDeleteसराहनीय समीक्षा
ReplyDeleteआप को नव वर्ष की बहुत सारी शुभ कामना
नया साल मुबारक हो,
साथ ही सभी ब्लॉग लेखक और पाठक को भी नव वर्ष की शुभ कामना के साथ
दीपांकर कुमार पाण्डेय (दीप)
http://deep2087.blogspot.com
बचपन मे दादा जी से बैरिस्टर साहब के किस्से सुना करता था . बाद मे कुछ पढा. गार्मेन्ट स्कूल मे जब पढा करते थे ओर रोजाना उनके घर के पास से स्कूल जाया करते थे तब नाम हि सुना करते थे आज बैरिस्टर साहब के बारे में तथ्यपूर्ण जानकारी मिली ..
ReplyDeleteबेहतरीन समीक्षा -आभार।
ReplyDeleteरचनात्मक ...रोचक ..तथ्यपरक समीक्षा
ReplyDeleteYour new post is ardently awaited .
ReplyDeleteइस किताब से परिचय तो आपने बहुत अच्छे से कराया है। तथ्यों की पड़ताल भी जमकर कर दी है। क्षेत्रीय नायकों पर तो अब(या हमेशा से) ध्यान देना शायद कम ही रहा है। राहुल जी ने तो इस पोस्ट तक पहुँचाया है लोगों को। उनके गाँव अकलतरा से सम्बन्धित बातें हैं।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteठाकुर छेदी लाल बैरिस्टर साहब जी की वीर गाथाये अद्वितीय है छत्तीशगढ़ के नाम को रोशन करने के लिए एवम राजपूतो की शान बनाने वाले आपको प्रणाम
ReplyDeleteछेदीलाल
ReplyDeleteबताइए