नेपाल की सीमा पर उत्तरी बिहार के सीतामढी जिले में खरसान नाम से एक गांव है .गांव तो बड़ा ही प्रसिद्द है . इसकी ख्याति राजपुतान गांव के रूप में थी, वैसे दीगर जातियों के लोग भी थे . गांव के बगल में लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर आजादी के पहले सुगर फैक्ट्री खुली. बडी संख्या में राजपूत लड़के नौकरी पा गए. दीगर जात के लोग भी पाए. अधिकांश को सिपाही की नौकरी मिली और खरसान के राजपूतों ने अपने नाम पर बट्टा नहीं लगने दिया. इसका कारण था कि यहाँ के राजपूतों के एक हिस्से को संपत्ति की रक्षा के लिए ही बाहर से लाकर गांव में बसाया गया था . गांव के दबंग और अमीर लोग बैस राजपूत थे . इस शाखा में बाबू पहली सिंह बड़े ही विख्यात हुए .कहा जाता है कि सीतामढी से गंगा के पहलेजाघाट तक उनके नाम के ख्याति थी .
लगभग डेढ़ सौ साल पहले अन्ग्रेजी राज में कानून और व्यवस्था की समस्या हुई तो इन अमीर और दबंग लोगों ने चार मजबूत और लाठी के धनी कुरुवंशी राजपूत भाइयों को आमंत्रित किया . चारों भाई वचन के धनी तो थे ही बलशाली पहलवान भी थे .आजीविका की तलाश में चारो भाई आये तो उनके साथ एक नाई और लुहारी का काम करने वाला बढ़इ भी था . तीन भाईयों ने परिवार बसाया और चौथे ने धर्म कर्म में मन रमा लिया .सब के परिवार बढते गए पर इनके वंशजों में एका बना रहा . तीर्थ यात्रा के दौरान हज्जामों के पुरखे सुकेश्वर ठाकुर की मृत्यु हुई तो तीन भाइयों के वंश के प्रमुख उत्तराधिकारी श्री नवद सिंह ने स्वयं मृतक का अंतिम संस्कार किया .
कुरुवंशी राजपूतों को १८५७ के बाद अंग्रेजों द्वारा उत्पन्न क़ानून और व्यवस्था की गडबरी के कारण बुलाया गया था अतएव अंग्रेजीराज से सहानुभूति तो होनी नहीं थी लेकिन आजीविका के लिए १९२० के दशक में ब्रह्मदेव बाबू और विद्या बाबू के दादा जी श्री नवाब सिंह बिहार सरकार की जेल पुलिस में भर्ती हुए , खरसान और निकटवर्ती ग्राम कुसुमारी के अनेक लोगों को अपने संपर्कों से नौकरी दिलायी . बाबू नवाब सिंह रुतबे वाले हो चले थे. उनकी आखिरी पदस्थापना भागलपुर जेल में हुई थी.
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दिनों बिहार के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी भागलपुर जेल में बंद थे. इन नेताओं के लिए जेल से भागने की योजना बनाई गयी. नेताओं ने तय किया की जेल से भागने की इस गोपनीय तैयारी में बाबू नवाब सिंह की बड़ी भूमिका रहे. ज़ाहिर था कि जेल ब्रेक की घटना के आम होते ही नवाब सिंह पकड़ लिए जाते और उनकी नौकरी छूट जाती. इसकी क्षतिपूर्ति की व्यस्था निश्चित की गयी. इस सम्बन्ध में किया जा रहा पत्राचार गांव के एक ब्रिटिश भक्त के हाथ लग गया. सारी योजना का पर्दाफाश हो गया. नवाब सिंह नौकरी से निकाल दिए गए. बेरोजगारी में वापस गांव आ गए. पुत्र का भविष्य भी अनिश्चित रह गया. पिता-पुत्र दोनों सीमित पुश्तैनी भूमि पर कृषि करने लगे. उनके परिश्रम से उनके पोतों को सतत संघर्ष करने की प्रेरणा मिली. श्री ब्रह्मदेव सिंह वायुसेना के हवाई अड्डे में कार्यरत रहे तथा पूरी कार्यावधि के बाद सेवा से निवृत्त हुए. छोटे पोते श्री विद्या नंदन सिंह संस्कृत हाई स्कूल से रिटायर होने वाले हैं. विद्या सिंह के बालसखा श्री महेंद्र सिंह ने मुंबई के आर्थिक जगत में बिल्डर के रूप में सफलता प्राप्त की है तथा फिल्म निर्माण के व्यवसाय से भी जुड़े हैं.
बढि़या परिचय, लेकिन चित्रों के साथ नाम न होना अनजान पाठक को भटका सकता है. तीसरे चित्र का अनुपात गड़बड़ हुआ है और कुछ प्रूफ की भूलें अखरने वाली हैं. सुविधाभोगी पाठक ऐसी पोस्ट के साथ कुछ नक्शा-वक्शा भी देखना चाह लेता है.
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ReplyDeletebahut hi badhiyan...bas photos ke saath naam hota to aur bhi mazedaar hota...
ReplyDeleteMadan Mishra
पढ़ा. रोचक किन्तु संक्षिप्त.
ReplyDeleteDrRaju Ranjan Prasad
अति सुन्दर
ReplyDeleteसाफ साफ कहूँ तो ठीक लगा। हाँ, तस्वीर के साथ नाम ठीक रहता। जेल से भगाने के सिवाय कोई खास काम नहीं नजर आता।
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